ज्यूँ ही बरसात का
पहला खड़ा दोंगडा पड़ा
कि बावले हो चले नाले
कंगले ताल-तलैय्या
सब हो उठे मालामाल!
चलने लगीं ठहरी हुई
अनगिन खड्डीयां
बुने जाने लगे खुले में
उधर,हरे गुदाज़ गलीचे।
सजने लगी हर ठौर
मकरंद की मंडियां
जहाँ तहां डोलने लगीं
मत्त पतंगों की टोलियाँ
एक ही झटके में
कैसा चमकने लगा कुदरत का
मंदा पड़ा कारोबार!
देखो! उसे क्या हौसला मिला
कि चट्टान का ताबूत तोड़
आँख मलती फ़िर उठ खड़ी हुई
दफ़्न जिंदगी।
सरे शाम फ़िर एक बार
जुड़ने लगे मेघ मल्हार मंडली के
सभी बिखरे हुए मेंढक।
दिन ढले रोज़
रचने लगा सूरज
रंगों का एक अदभुत तिलिस्म
फ़िर हवा बदन में
जगाने लगी एक अजीब जादू
हिया यूँ ही बेकरार हो उठे।
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