वो ज़माने लद गए जब घर के बड़े बुजुर्ग दूल्हे को
घसीट कर मंडप में बिठा दिया करते थे. आजकल के कॉर्पोरेट दूल्हे घोड़ी से उतर कर खुद
अपनी बारात में ठुमके ही नहीं लगते बल्कि दस-पंद्रह दिन पहले से पेशेवरों की तरफ इसकी
रिहर्सल भी करने लगते हैं. गुणी जन तो यहाँ तक कहते सुने गए हैं कि जवानी की दहलीज़
पर कदम रखते ही ये हनीमून आदि की रिहर्सल भी करने लगते हैं. फिर हमारे विश्वविद्यालय
का इस साल का दीक्षांत समारोह तो गोल्डन जुबली वाला था, ऊपर से महामहिम शिरकत करने
आने वाले थे तो भला हम रिहर्सल से क्यूँ परहेज़ करते.
मगर चूँकि दीक्षांत समारोह का दिन अभी दूर था,
सो पहली-पहली रिहर्सल के लिए लोगों के पाँव नहीं उठ पा रहे थे. एक सज्जन ऑडिटोरियम
के बाहर नामों की सूची यूँ हाथ में थामे खड़े थे मानों रंगोली का छपा हुआ नमूना लिए
हों. वे एक बार सूची पर निगाह डालते, फिर सूची का आदमी भीड़ से खोज-खोज कर लाइन में
खड़ा करते. तभी उनकी मदद को एक और महाशय आगे आये. अब वे आदमी ढूंढ-ढूंढ कर लाने और
काफिला बनाने में इस लहजा हेल्प करने लगे जैसे कोई मजदूर दीवार चिनने वाले राज को
ईंटें पकडाता है.
अकादमिक कारवां अगर अजगर मान लिया जाये तो उसका
मुंह और धड़ तो धूप में थे, मगर पूंछ छाया में थी. हम ठीक उस जगह खड़े थे जिस जगह
जीव की गरदन रही होती. आगे खड़े हुए हम जैसे आम लोग कड़ी धूप सहन करने की रिहर्सल के
साथ-साथ छाया में खड़े खास लोगों पर कुढ़ने की भी रिहर्सल कर रहे थे. मेरे एकदम पीछे
खड़े सज्जन के पैरों पर उनके सर के ऊपर लगे ए.सी. का पवित्र पानी इस अदा से टपक रहा
था गोया उनका पाद-पूजन कर रहा हो. उनके श्रीचरणों से छिटका इक्का दुक्का छींटा जब
तब हमें भी पवित्र कर जाता था. इस तरक़ीब से हमें भी कुछ वैसी ही शीतलता प्राप्त हो
रही थी जैसी मियां चाँद को सूरज से हो जाया करती है.
कैमरामैन अभी तक पेंग्विन के झुण्ड की माफ़िक एक
किनारे पर खड़े थे. चल समारोह जैसे ही चलना शुरू हुआ तो उनकी रिहर्सल भी शुरू हो
गयी. वे अदबदा कर ऊदबिलावों की तरह इधर उधर दौड़ते दिखे. वे थोड़ी दूर दौड़ते, फिर
उचक-उचक कर न जाने क्या देखते और फिर दौड लगाने लगते. तभी दो चार फोटोग्राफर भाग
कर चढ़ाव पर तैनात हो गए, तो कईयों ने अपने कैमरों को सर के ऊपर छतरी की तरह तान
लिया. एक जालिम तो कैमरा धरती पर रख कर इस इत्मीनान से बैठ गया मानों गंगा-तट पर
दीप दान करने चला आया हो. उधर दूसरा अपने लेंस के जरिये समूचे चल समारोह को अपने
कैमरे में यूँ समाने लगा ज्यूँ कोई एनाकोंडा अपने शिकार को तिल-तिल कर निगल रहा
हो.
आखिर मंचीय कार्यक्रम की रिहर्सल प्रारंभ हुई. कार्यक्रम के दौरान प्रमुख वक्ता ने जुबान
फिसलने की रिहर्सल एकाधिक बार की. उधर दर्शकों ने भी जम कर जम्हाइयां लेने का बाकायदा
अभ्यास किया. चूँकि बीच-बीच में नजर बचा कर ‘सुविधाएँ’ का रुख किया जा सकता था,
मुख्य कार्यक्रम के दिन दबाव सहन करने की रिहर्सल ढंग से नहीं हो पाई. रिहर्सल और
असल का फासला पाटने के लिहाज़ से दूसरी रिहर्सल में दो फर्क नजर आये. एक तो
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि, जिन्हें विद्यार्थियों को मैडल पहनाने थे उनका कद काट
कर छोटा कर दिया गया. दूसरे, ठिगने अतिथि के छोटे डगों से तालमेल बिठाने की गरज से
काफिले के प्रगमन का अभ्यास फिर-फिर किया गया. बेशक कुछ खामियां तब भी रह गयीं. मसलन
यह देखते हुए कि दीक्षांत समारोह के बाद भोजन का भी आयोजन होना है, खाने की
रिहर्सल नहीं हो पाई. लेकिन कोई डर नहीं, अभी और रिहर्सलें पड़ीं थी कमीबेशी दूर
करने को.
हम इधर रिहर्सल पर रिहर्सल में पिले पड़े थे. हो
न हो उधर महामहिम भी इसी सब में मुब्तला हों. गो ‘आग दोनों तरफ है बराबर लगी
हुई’ की तर्ज़ पर. किन्तु संभव है न भी हों, क्योंकि बारात की घोड़ी इतनी मर्तबा मंडप
चढ़ चुकी होती है कि उसे क्या अभ्यास करना!