कल घडी के काँटों के साथ बढ़िया रेस खिली. ९:२०
पर दिल्ली के एयरपोर्ट पर उतर कर नयी दिल्ली से १३:५५ पर छूटने वाली कटिहार की
राजधानी पकडनी थी. यही कोई साढ़े चार घंटे थे हाथ में. किन्तु इंदौर से टेक ऑफ ही १२:२०
पर हुआ, लेंडिंग डेढ़ बजे. ट्रेन मिलने की उम्मीद छोड़ी नहीं थी. आखिर कुहरे की कोई
फ्लाईट से ही दुश्मनी तो थी नहीं, राजधानी भी तो लेट हो सकती थी! एयरपोर्ट से नयी
दिल्ली की मेट्रो पकड़ी ही थी कि खबर मिली कि राजधानी छूटे हुए पाच मिनट से ऊपर हो
चुके हैं. ऐसा लगा जैसे विदेशी धरती पर टीम इंडिया एक बार फिर जीतते-जीतते रह गयी
हो.
बेटे को फोन कर अगले दिन पटना की फ्लाईट बुक
करायी. सुबह दिल्ली के गुलाबी बाग़ से जब निकले तो हल्का कुहरा नज़र आ रहा था.
मेट्रो स्टेशन पहुंचते-पहुंचते यह कैंसर की तरह सब तरफ फैल चुका था. एयरोसिटी
स्टेशन से टर्मिनल १ की तरफ जाते-जाते तो इसने विकराल रूप धर लिया था. दिन
ज्यूँ-ज्यूँ चढ़ता गया, कोहरा त्यूं-त्यूं गहराता गया. लगा 'दर्द बढ़ता गया,
ज्यूँ-ज्यूँ दवा की' लिखने की प्रेरणा मोमिन को जरूर दिल्ली के कुहरे से ही मिली
होगी. संतों की वाणी याद आई. जहाँ "मैं" है, "तू" नहीं
है. "तू" है, वहाँ "मैं" नहीं है. कोई एक ही हो सकता है. पहली
बार आज इसका मर्म समझ में आया. यही- कि धुंध है तो जग नहीं, जग है तो धुंध नहीं.
ता में दुई ना समाहीं. ख़याल आया जैसे बर्फ़ काट कर सड़क खोल देते हैं, ऐसे ही धुंध
काट कर रन वे खोलने की मशीन कहीं तो जरूर होती होगी!
वेटिंग लाउंज में बैठे बाहर कोहरे पर नजर गडाये
बचपन के दिन याद आ रहे हैं. थोड़े बड़े हुए ही थे कि इंटर कालेज में बड़ों की सोहबत
का असर पड़ना शुरू हो गया था. गर्मियों के दिनों में अक्सर रोटी-अचार-गंठा लेकर घर
से निकलते. मगर स्कूल नहीं पहुँचते. बरला गाँव के ठीक पहले पड़ने वाली गरभी (छोटी नहर) में डुबकियाँ लगा कर
बालू में लोट रोटी-अचार-गंठा खाते और घर लोट आते.
मालूम होता है आज वही इतिहास दोहराया जायेगा.
भतीजी के बाँध कर दिए गए परांठे खा कर वापस घर जाना पड़ेगा. 'तीसरी कसम' के 'हीरामन' की तरह इस पहली कसम के साथ:
कुछ
हो जाये आइन्दा जनवरी के महीने में कभी उत्तर भारत का रुख नहीं करेंगे!!