Monday, August 22, 2011

बचना ऐ हसीनों, लो मैं आ गया....!!

खुदाई, छिलाई और घिसाई के अनगिनत सत्रों के कठोर तप के बाद आखिर दंताधिदेव को मजबूरन हमारी भक्ति से प्रसन्न हो कर हमें चमक मारती हुई दन्त पंक्ति का वर देना ही पड़ा. इस तरह वो चिर-प्रतीक्षित दिन भी आ ही गया जब दंत-पति ने हमारे मुखमंडल में दांत जड़ कर सालों से रिक्त पड़े स्थान की पूर्ति कर दी. बोले- अभी टेम्पररी  फिक्स कर रहा हूँ. एक हफ्ता लगा कर देख लो...ठीक लगा तो परमानेंट कर देंगे. हमने कहा- जी, यही ठीक रहेगा. एक हफ्ते का प्रोबेशन अच्छा है...देख लेते हैं कि बेलेंस बराबर है कि नहीं. कहीं ऊँच-नीच तो नहीं रह गयी. लोगों की फीडबैक ले लेते हैं ताकि कुछ कमी-बेशी दिखे तो समय रहते सुधरवाई जा सके. काम मुकम्मल होने पर उनकी जय जयकार के बाद वर्कशॉप से निकल कर जब हम घर की ओर मुड़े तो पत्नी बोली- सुनो जी, जरा खजराना मंदिर ले चलो. किसी भी नयी चीज के इस्तेमाल से पहले गणेश जी का आशीर्वाद ले लेते हैं, अच्छा रहेगा. 
         अगले दिन कॉलिज पहुंचे तो साथी शिक्षक बधाई देने कमरे में जुड़ गए. एक बोला- बधाई हो सर, पुष्ट उभारों से आज तो चेहरे की सुगढ़ता देखते ही बनती है...बिलकुल जवान लग रहे हैं! दूसरा- जवान? मैं तो कहता हूँ बाल तो माशाअल्लाह अभी आपके पूरे हैं और कोई खास सफ़ेद भी नहीं...थोडा स्किन केयर ट्रीटमेंट ले लें तो टीन ऐज में ही न पहुँच जाएँ! तीसरा- और जरा दांतों को तो देखो...कैसे मोतियों से चमक रहे हैं! मैडम को काला टीका लगा कर भेजना चाहिए था. चौथा- वाकई सर, नकली दांतों के सामने असली वाले तो ऐसे लग रहे हैं
जैसे यजमान के आँगन में छिडकाव करने वाले सक्के. सुन कर हम फूट पड़े- अरे कमबख्तों, हम यहाँ हनुमान जी सरीखा मुंह लिए घूम रहे हैं और तुम्हे ठिठोली की पड़ी है...हमें यूँ फील हो रहा है जैसे होंठों के नीचे सुर्ती दबा रखी हो या किसी बॉक्सर को दांतों पर गद्दे की तह जमा कर बाउट के लिए तैयार कर दिया गया हो, और तुम सबको मसखरी सूझ रही है. 
    तभी स्टुडेंट्स का एक जत्था आया. उनमे से एक बोला- अरे वाह, सर...फिर कल से तो आप क्लास लेने आ रहे हैं! 'नहीं, अभी थोडा रुको'. 'क्यों सर?...अब तो आपके नए दांत भी आ गए हैं.' 'हाँ, मगर स्टीयरिंग पर पहली दफा बैठते ही क्या कोई गाड़ी मार्केट में निकाल कर ले जाता है? अभी दो चार रोज गली मोहल्ले में घुमायेगें तो हाथ साफ हो जायेगा. फ़िक्र मत करो जैसे ही हमें नए दांत बेगाने के बजाय अपने से लगने लगेंगे, मैं हाज़िर हो जाऊँगा और सारा हिसाब चुकता कर दूंगा. 

Saturday, August 6, 2011

दांत, माप और धोखा

धोखा 
मुक़र्रर तारीख पर दांतों का माप देने हम क्लिनिक पहुंचे. इशारा किये गए फर्नीचर पर चढ़ कर अधबैठे या अधलेटे से, हाथ में फीता लिए डॉक्टर के प्रकट होने का इंतज़ार करने लगे. तभी एक जूनियर डॉक्टर ने एंट्री मारी, वो भी खाली हाथ. आते ही हमें भौचक करते हुए सवाल दागा- आपने खाने खाया? हमने कहा- हाँ, दो बजे खा लिया था...मगर आप पूछ क्यों रहे हैं? आखिर खाने का माप से क्या लेना देना? वे शायद काम में ज्यादा बातों में कम विश्वास रखते थे, सो एक मोनालिसा मुस्कान बिखेर कर गायब हो गए. हम आगत की आशंका से काँप उठे.

तैनाती
उसी वक़्त सफ़ेद लबादे में दो तीन डॉक्टर  मुंह पर मास्क और हाथों में दस्ताने चढ़ाये हमारे इर्द-गिर्द तैनात हो गए. उन्हें देख कर यह भेद कर पाना मुश्किल था कि उनमे से कौन जूनियर डॉक्टर है और कौन उनका सरगना यानि सीनियर. हम सोचने लगे ... हम टीचर लोग तो पढ़ाते वक़्त अपना मुंह उघाड़े रखते हैं, फिर आपरेशन के दौरान डॉक्टर अपना मुंह क्यों ढक लेते हैं. बहुत विचार करने के बाद यही समझ आया कि अपनी पहचान छुपाने के लिए ही वे ऐसा करते हैं ताकि चाकू की चूक से मरीज़ की जान वान चली जाने पर उनकी खुद की जान बच सके. 

आक्रमण 
खैर, इससे पहले कि हम कुछ पूछने को अपना मुंह खोलते, निचले होंठ को पीछे धकेलते हुए उन्होंने राजपूतों के ड्राइंग रूम में आड़े-तिरछे सजे भालों के अंदाज़ में कई सुइयां हमारे मुंह में घोंप दी, बस इस अंतर के साथ कि यहाँ भालों की नोंक नीचे की तरफ और हमारे अन्दर थीं. यह ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता कि सुइयां मसूढ़ों में ठोकी गयी थी, गाल में, या गाल और मसूढ़ों के संधिस्थल में. अलबत्ता, इतना जरूर कहा जा सकता है कि घड़ी भर में ही हमें अपना चेहरा मशक जैसा फूला-फूला लगने लगा. निचले होंठ को जहाँ तहां दबा कर देखा तो लगा जैसे स्कूटर की ट्यूब में पंचर टेस्ट कर रहें हों. अब आती क़ज़ा से बचने का कोई रास्ता न देख हमने खुद को डॉक्टरों के हवाले कर दिया.  उन्होंने हमारे इधर-उधर के दांतों को किसी खराद पर धर कर धुंआधार छीलना शुरू किया. शल्य-क्रिया कक्ष में उड़ते कणों की धुंध  और स्टोन-क्रशर सी गंध फैल गयी. दांत के एपीसेंटर से उठते टीस के जलज़ले पूरे बदन को अपनी चपेट में लेने लगे. फ़िराक साहब का एक शे'र है:
उसका   सरापा   हमसे   पूछो   
सर से पाँव तक चेहरा ही चेहरा 
वहां जो चेहरा था वो यहाँ दांत था. हमारा  समूचा वजूद भी दांत बन कर रह गया था. रह-रह कर सीट से इंच भर ऊपर उछलता हमारा पृष्ठ भाग, पूरे शरीर का दांतों की दिशा में बेतहाशा सिकुड़ना और चेहरे पर खौफ और दर्द की लहरियां भी उस संगकार को अपनी धुन से न डिगा सकी. कसम खुदा की, विद्यार्थियों और परिजनों की श्रवण संबंधी तकलीफों का ख़याल न होता तो हम बीच में ही उठ कर भाग खड़े होते.