मकान में तीन बालकनियाँ- एक
पूरब में और दो पश्चिम में, यानी तीन-तीन सूबों की खुली सीमाएँ, यानी
तीन तरफ से घुसपैठ को दावत! दिक्कत की बात यह है कि पूर्वी सीमा पर निगरानी
बढ़ाओ तो पश्चिमी सीमा पर हलचल शुरू हो जाती है। दुश्मन को द्रास सेक्टर से खदेड़ो तो
कारगिल में
सेंधमारी को तैयार रहो। चौबीसों घंटे चौकसी जरूरी है। जरा सी चूक हुई नहीं कि आतंकियों
की माफ़िक
यहाँ वहाँ अस्सलाह छुपा दिये जाते हैं, फिर आपकी
सरदर्दी कि बरामद करते फिरो। एक बार वॉशिंग एरिया की चौकी छोड़ हम दूसरी तरफ गए तो बालकनी
की रेलिंग पर एक कबूतर को चोंच में दबे तिनके से लैस पाया।
तुरंत कांबिंग आपरेशन शुरू किया। देखा कि थोड़ों दूर पर एक ताज़ा अंडा रखा
है, और
पास ही सूखे डंठल, तिनके आदि बिखरे पड़े हैं। लो! यहाँ तो कब्जे की पूरी तैयारी हो
चुकी थी।
पिछले दिनों दो एक रोज़ को शहर से
बाहर जाना पड़ा। लौटे, तो क्या देखते हैं कि मनीप्लांट की ओट में मजबूत
घोंसला बन चुका है जैसे बर्फ की आड़ में पाक रेंजरों ने कारगिल में पक्की
बंकरें बना डालीं हों। घोंसले पर दो अदद अंडे, अंडों के ऊपर
टस से मस नहीं होती एक कबूतरी। क्या करते… फिर तो बालकनी पर
अपना हक़ ही छोड़ देना पड़ा। उतने इलाके को पीओके यानी पिजन आक्युपाइड क्षेत्र मानते
हुए रसोईघर की दीवार को ही वास्तविक नियंत्रण रेखा स्वीकार कर लिया। ...कुछ
दिनों में अंडों से गुलाबी पीले फर वाले बच्चे निकल आए। अब तो वक़्त बेवक्त जच्चा बच्चा
के हालचाल लेने कबूतरों के झुंड के झुंड इधर चले आते। बालकनी के बाहर की तरफ जाल
पर दिन भर कबूतरों का जमघट यूं लगा रहता ज्यूँ आपरेशन के लिए भर्ती मरीज के
रिश्तेदारों का मजमा अस्पताल के लान या लॉबी मे लगा रहता है। वही दो
का जाना, चार का चले आना...बिना सिलसिला टूटे।
पछुआ मुहाने की डक्ट में लगे सीवेज पाइप में से एक
टूटा हुआ है। उसके ऊपर तो समझिए बस कबूतरों के लिए सम्पूर्ण प्रसूति
गृह ही खुला हुआ है। इधर एक प्रसूता की छुट्टी हुई नहीं कि दूसरी के एक जोड़ी अंडे बेड पर रखे
मिलते हैं। कभी-कभी तो शक होता है कि कहीं किसी घाघ कबूतर ने अपनी बिल्डिंग का ये हिस्सा
धोखे से नर्सिंग होम
के रूप में किराए से तो नहीं चढ़ा रखा। खैर! जो भी हो, घर में बारहमासी सूतक का आलम
रहता है। जचगी के बाद शुद्धि हवन की कोई गुंजाइश नहीं। दरवाजे
खिड़की खोलो तो कुछ वैसे ही भभके उड़े आते हैं जैसे जाड़ों के मौसम में भैंसों के
तवेले का फाटक खोलने पर आते हैं।
घर में कोई ऐसी जगह नहीं जहां ये बाजाफ़्ता
प्रसूति सम्पन्न नहीं
कर लेते। दूध का छींका, जूतों की रैक, गमलों के बीच की जगह, दीवार के आले, हाथ धोने की चिलमची, कमरों
के टांड़, पानी की टंकी के पीछे के कोने...। क्या है कि मुझ में खुले मुंह सोने का ऐब है। लेकिन
छुट्टी वाले दिन मैं बालकनी में अखबार पढ़ते-पढ़ते नहीं ऊंघ सकता। .... क्या पता
नींद खुलने पर मुंह में अंडा धरा मिले! कल ही की तो बात है।
पत्नी की छुट्टी थी। सुबह
मजे में मैगजीन पढ़ते हुए नाश्ता किया। कुल्ला करने के बाद वापस आया तो देखा कि
मैगजीन पर दो अंडे रखे हैं। हम दूर से ही चिल्लाये- अरे, देखो
तो कबूतरों ने यहाँ भी अंडे दे दिये। पत्नी झल्लाते हुए बोली- कबूतर ने नहीं, मैंने रखे हैं। आज मकर संक्रांति है
ना! तिल के लड्डू हैं, खा लो।
तिल का ताड़ ऊप्स अंडे ओफ्फोह लड्डू निकले अंत में.. सावन के अंधे को भले ही हरियाली दिखाई दे, कबूतरों से पीड़ित इंसान को सदा अंडे नज़र आते हैं.. संडे हों या मंडे.. बालकनी हो या रसोई, गुसलखाना हो या सीधी घर.. बस अंडे ही अंडे!!
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट पर आपको अंडे देने का मन कर रहा है.. दस पर अंडा यानि पूरे सौ!!
पिज़न ओक्यूपाईड क्षेत्र:)
ReplyDeleteहमसे तो परिंदे भले, पिछले कई दिन से आपके ब्लॉग में ही एंट्री नहीं मिलती थी हमें। देख लीजिये पिछली कई पोस्ट्स पर हमारे दिये अंडे, सॉरी कमेंट नहीं दिखेंगे। सलिल भैया के पूरे सौ में शुरू वाला डंडा हमारा मान लीजियेगा।
HAHAHA Hilarious ! Pigeon occupied pe to feel hi aa gayi! ye to sabko padhwaaya jaayega.. Hamare ghar ka bhi yehi aalam hai.. Bacche bade hue nahi ki unhone wapis ande de die!
ReplyDeleteBest part about this blog is papa narrated it to me before publishing! :D
ReplyDeleteजिस प्रकार भगवान शिव ने पार्वती को अमरनाथ की गुफा मे कहानी सुना रहे थे उस स्थान पर भी कबूतर थे हो सकता है ये कबूतर आप के ब्लॉग को चुपके चुपके खिड़की मे से झाँक कर उस समय पढ़ते भी होगे जब आप ब्लॉग देख रहे होते हो ! इन कार्यो की प्रेरणा भी आप के ब्लॉग से ले रहे हो ? सर आप इन कबूतरो की प्रक्षीसित कर पत्रो का आदान प्रदान एवं ब्लॉग का प्रचार का कार्य भी करवा सकते है !
ReplyDeleteबहुत ही मजेदार पोस्ट। एक एक शब्द हंसी में डुबाने को तैयार। बधाई।
ReplyDeleteसलिल भाई, आपके भेजे अंडे मिले...आभार!
ReplyDeleteसंजय भाई, आपका डंडा बहुत काम का है। कबूतरों को डराने के काम आएगा...!
मनु...फील तो आ गयी, पर गंध- आई कि नहीं??
अरे संदेशजी,कबूतरों से प्रेरित और प्रशिक्षित हो कर ही हम हिंदुस्तानी जनसंख्या बढ़ाने पर लगे है...
अजीत गुप्ता जी, आपकी टिप्पणी हमारा सौभाग्य!!
बहुत मजेदार पोस्ट रही. मुंबई/चेन्नई में मेरे भाईयों के यहाँ भी यही हाल हैं. अपने अण्डों के प्रति कबूतरों की लापरवाही समझ में नहीं आती. पक्का घोंसला बनाते भी हमने नहीं देखा. अब उनके मनोविज्ञान के म्बारे में भी किसी गुणी से समझना होगा.
ReplyDeleteघोंसला पक्का ही कहिए, सर जी, जब कबूतरों की कई पीढ़ियों के काम आए...!!
DeleteAccha hua Apne mere suggestions nahi mane (Kabootar Jali lagane ka) varna bhai log is blog se vanchit rah jate...
ReplyDeleteCYBER NOMADS: बात तो सही है!
ReplyDelete'POK' and 'Til ke Ladoo' captured the best region.... will make the kabooter(i) at my house's electricity meter (ande bhi diye hue hain), listen to your blog.... may we can be benefited somehow!!...:)
ReplyDeleteसिद्धि जी, चैक कर लेना कहीं आपके बिजली-मीटर में प्रति माह दिये गए अंडों की रीडिंग तो नहीं आती...!!!
Deletehahaha....
Deletebahut achcha lga aapki kbutar ki aapbiti padhkr sir .
ReplyDeleteantim pankti me to hansi hi aa gai.bahut achchi lgi aapki ye prastuti bhi.
सॉरी मैडम जी...आपको बहुत इंतजार (अंतिम पंक्ति तक) करना पड़ा!!
Deleteअंकल जी, पोस्ट तो पोस्ट... आपकी टिप्पणियाँ भी कम मज़ेदार नहीं होती :)
Deleteअंकल!! एकदम सत्य का बखान करा है आपने... हमने भी कई बार हमारे सुरक्षा घेरे में सेंध लगा आये कबूतरों को बचते बचाते खदेड़ा है...
ReplyDeleteये किसी आतंकवादी टुकड़ी के माफिक सर पे कफ़न बांध कर आते हैं और लगातार हमलों और जवाबी कार्यवाई के चलते माहोल दहला देते हैं.. ऐसे में सीमा के इस पार की सिविलियन जनता यहाँ वहां दुबकी हुयी मिलती है....
और तो और सबसे खतरनाक हैं इनकी हवाई बमबारी.. आप खुले आस्मां के नीचे मिले नहीं कि दिन भर महकते हुए घूमिये...
सही है... कबूतर हमलों के हम शिकार हैं, हम और आप दोनों! और दुबके रहना हमारी नियति!!
DeleteIts high time your turn Eggeterian.
ReplyDeleteThe moment you turn eggeterian, you'd be looking forward to a new Jacchha every time the previous one delivers. :P
सलाह तो उत्तम है....
ReplyDeleteमेरे घर के आस-पास में तेरी महालीला.. ग़ज़ब,
ReplyDeleteछेड़ के हमको कर देती हो मुझको..लाल-पीला... ग़ज़ब :)
मस्त पोस्ट है। पहले भी पढ़ा था मगर कमेंट नहीं कर पाया था। अंत पढ़कर तो ठहाके निकल ही जाते हैं। मेरे घर में भी एक कबूतर रहता था। केवल एक दूसरा नहीं। अंडे से पाला था उसे मैने। घूम फिर कर लौट आता। उसकी गुटर गूँ जितनी प्यारी लगती थी उतनी ही आपकी लगी..गुटर गूँ।
ReplyDeleteBEHATREEN POST KE LIYE SADAR BADHAI ....KABOOTAR TO MERE GHAR ME BHI RAHATE HAIN
ReplyDeletehahahahaha....POK bole toh pigeon occupied shetra...sir maaloom padta hai jama masjid aur gateway of india ke kabootron ka aapki building mein hi sthaanantaran ho gaya hai :)
ReplyDeleteवो( जमा मस्जिद के कबूतर)तो सुनामी हैं पीयूष जी, उसकी तुलना मैं तो अपने यहाँ मात्र ज्वार है!
Deleteअच्छा प्रयोग है । कबूतर को पहली बार आतंकवादी के रूप में पढ़ रहा हूं ।
ReplyDelete" कभी-कभी तो शक होता है कि कहीं किसी घाघ कबूतर ने अपनी बिल्डिंग का ये हिस्सा धोखे से नर्सिंग होम के रूप में किराए से तो नहीं चढ़ा रखा। खैर! जो भी हो, घर में बारहमासी सूतक का आलम रहता है। जचगी के बाद शुद्धि हवन की कोई गुंजाइश नहीं।"
कलम साध ली है आपने । बधाई ।
चौधरी साहब, आप जैसे स्थापित और नामचीन व्यंग्यकार से तमगा मिलना हम जैसों के लिए बड़ी बात है। आभार!
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