Monday, June 1, 2020

ऑनलाइन भलाई करने वालों के लिए स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीज़र (एस ओ पी)


कोविड़-19 के चलते फैक्ट्रियाँ बंद होने से मजदूर बेरोजगार हो गए। ऐसे ही कॉलेज और विश्वविद्यालयों के बंद होने से प्रोफेसर कर्म विहीन, वाक विहीन और विद्यार्थी बेसहारा हो गए। उनके भारी नुकसान को देखते हुए देश में ऑनलाइन भलाईवीरों की  बाढ़ सी आ गयी। विद्यार्थी समुदाय के कल्याण के लिए रातों रात न जाने कौन कौन से अलाने फलाने मंच जहां-तहां कुकुरमुत्तों की तरह उग आए। कई बार यह बात चकित करती है कि ये कल्याणकारी लोग अभी तक कहाँ छुपे महामारी का इंतजार कर रहे थे। खैर, उग आए तो ओई बात नहीं,  किन्तु दिक्कत की बात यह है कि जोश से भरा हर भलाई मंच मानों फटकार-फटकार कर हमें कह रहा हो – हे मूर्ख, खलकामी हम तेरी भलाई के लिए रात दिन एक कर रहे हैं और एक तू है कि नाश्ते के बाद झपकी लेने की हिमाकत कर रहा है...अपनी  इस नीच हरकत पर तुझे शर्म आनी चाहिए!  हम तो खैर खेले-खाये हैं, सो  उनकी इस धिक्कार को अपनी मोटी चमड़ी से अंदर नहीं आने देते। किन्तु कच्ची उम्र के कुछ लौंडे शर्मा भी जाते हैं और फिर खाने पीने की सुध-बुध छोड़ कर पक्के जुआरियों की तरह तीनों बखत भलाई कराने में भिड़ जाते हैं। तब उनकी हरकतें कुछ-कुछ ऐसी होती हैं जैसे तुरत फुरत जवांमर्द होने की कोशिश कर रहा कोई किशोर डौले बनाने के लिए जमीन-आसमान एक किए जा रहा हो।

आप मोबाइल पर थोड़ी तफ़रीह के लिए फेसबुक खोलो तो दिखाई देता है कि ऑनलाइन भलाई करने वालों के हुजूम के हुजूम आपकी तरफ ढ़े चले आ रहे हैं। भलाई का यह सिलसिला ब्रह्म मुहूर्त के साथ शुरू हो जाता है और भले आदमियों के सोने के समय के बाद भी अनवरत जारी रहता हैं। जिसे देखो वही फेसबुक लाइव और वेबिनारों के जरिए देश का भला करने पर पिला पड़ा है। प्रत्येक कॉलेज इस जुगाड़ में हैं कि लॉकडाउन के दौरान अपनी फ़ैकल्टी का इतना डेवलपमेंट कर दें कि अगले सौ सालों तक उन्हें डेवलपमेंट की जरूरत ही न पड़े। जिसका नतीजा यह है कि फ़ैकल्टी अपना नॉनस्टॉप डेवलपमेंट करा-करा कर हाँफे जा रही है। यह सब देख कर मेरा मन अत्यंत व्यथित है। अतः ऑनलाइन भलाई करा रहे समस्त पीड़ितों के सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय मैं भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय से ऑनलाइन भलाई करने वालों के लिए मानक संचालन प्रक्रिया बनाने के लिए अपने बहुमूल्य विचार रख रहा हूँ। सरकार चाहे तो मुफ्त में इनका लाभ ले सकती है!

1.       यूं कोविड़-19 के समय में घर पर ठाली बैठे- बैठे थोड़ी भलाई करा लेने में कोई बुराई नहीं है, किन्तु डर इस बात का है कि कहीं भलाई के चक्कर में हम अपनी बुराई न करा बैठें। । अतः भलाई कराने से पहले यह देखना पड़ेगा कि सामने वाला भलाई करने लायक भी है अथवा उसे स्वयं ही भलाई की जरूरत है! आप कहोगे कि इसमे कौन सी बड़ी समस्या है! जब आपको लगने लगे कि बिगड़ी बनाने वाले आपकी बिगड़ी को बना कम और बिगाड़ ज्यादा रहे हैं तो आप तुरंत भलाई करवाना बंद कर दें। किन्तु समस्या यह यह है कि बिगड़ी बनवाने वाला भोला-भाला होता है (समझदार होता तो खुद भलाई न करने लगता!)। मरीज को कहाँ पता होता है कि उसे किससे, किस प्रकार का रक्तदान ग्रहण करना चाहिए! अतः जरूरी हो जाता है कि केवल सर्टिफाइड भलाई करने वालों को ही ऑनलाइन भलाई करने दिया जाना चाहिए।

2.       सच्चा वाकया है:  एक रोज किसी ने भरी दोपहरी घर का दरवाज़ा  खटखटाया। उस वक्त मैं घर पर अकेला था और आराम कर रहा था। झुँझला कर दरवाजा खोला तो आगंतुक ने तुरंत अपनी पीठ पीछे से एक चम्मचों  का सेट निकाल कर मेरी ओर बढ़ाते हुए कहा, हम आपको दे रहे हैं- बिलकुल मुफ्त! हमने कहा, तुम हमे मूर्ख समझते हो! अरे, तुम्हें यह सामान किसी को मुफ्त ही देना था तो इसे भँवर कुआं चौराहे पर छोड़ कर न चले जाते! सोचने की बात है कि सप्ताह भर पहले डुगडुगी पीट-पीट कर, लोगों के दरवाजे खटखटा कर कोई किसी की भलाई भला क्यों करना चाहेगा!  इसका जवाब ढूँढना कोई मुश्किल काम नहीं है। दरअसल कोरोना जैसी वैश्विक महामारी रोज-रोज नहीं आती। ऐसा मौका सौ साल में एक बार आता है। आपने जानकारों के श्रीमुख से सुना भी होगा कि जहां कोरोना एक चुनौती है तो वहीं एक अवसर भी है- भुनाने का! आज की स्थिति में सुनने वाले फुर्सत में हैं और सुनाने वाले मुफ्त में तैयार हैं। अतः राष्ट्रीय कार्यशाला ही नहीं, आज अंतर्राष्ट्रीय कार्यशाला कराने का सुनहरा मौका है- न रिसोर्स पर्सन के हवाई टिकट का टंटा, न होटल और खाने के बिल चुकाने का लफड़ा। तो सरकार को यह देखना चाहिए कि जन-भलाई की आड़ में कहीं मलाई तो नहीं काटी जा रही!

3.       देखने में आया है कि फेसबुक लाइव द्वारा भलाई कार्यक्रमों के लिए कोई तयशुदा समय नहीं है। भलाईबाज टाइम बेटाइम प्रकट हो कर हाँके लगाना शुरू कर देते हैं, भलाई करा लो- भाइयों  बहनों, नौजवानों बुजुर्गों , पढ़ने-पढ़ाने वालों सब आओ... भलाई करा लो। इधर दो घड़ी आराम के लिए आपकी आंखे मुंदी जा रही हों और उधर कोई आपकी कुंडली जगा कर आपकी भलाई करने पर तुला हुआ हो तो आप क्या कहेंगे! सरकार को चाहिए कि भलाई के लिए दैनिक स्लॉट निर्धारित किए जाएं। किसी मंच अथवा व्यक्ति द्वारा निर्धारित स्लॉट के बाहर लाइव होने की स्थिति में स्पॉट फाइन की व्यवस्था हो, साथ ही भविष्य में लाइव होने से उसे वंचित किया जा सके।

4.       एक बार लाइव हो चुकने के बाद किसी भी वक्ता को संजीवनी जैसा कुछ पी कर फिर से जिंदा नहीं होने दिया जाना चाहिए। सृष्टि का भी यही नियम है कि जो जन्म लेता है वह मृत्यु को प्राप्त होता है। जुकरबर्ग को परम पिता के विधान में हस्तक्षेप का कोई अधिकार नहीं है! अन्यथा भी फेसबुक पर लाइव होने के असंख्य इच्छुकों को अवसर उपलब्ध कराने के लिए यह जरूरी है कि एक बार लाइव  होने के बाद वक्ता को सदा-सदा के लिए आर्काइव कर दिया जाए।

5.       एक बड़ी आबादी के दिन भर ऑनलाइन टंगे रहने से घर के सारे ऑफलाइन कामकाज देश की अर्थव्यवस्था की तरह चौपट हुए जा रहे हैं। यह सिलसिला अगर यूं ही जारी रहा तो कालांतर में घर के बुजुर्गों और छोटे बच्चों का जीना दुश्वार हो जाएगा। अतः कोई भी मंच अथवा व्यक्ति प्रतिदिन अधिकतम सीमा के अंदर रहते हुए ही भलाई कर सकेगा। किसी को भी एक दिन में दो बार से अधिक भलाई करने अथवा कराने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए।

चिंता का विषय है कि ऑनलाइन भलाई की इस आपाधापी में देश के कर्णधारों का व्यवहार असामान्य होता जा रहा है।  कानों में हेड फोन लगाए शिक्षक और विद्यार्थी दिन भर मोबाइल और लैपटाप से चिपके हुए दीख पड़ते हैं।  वे किसी के आवाज देने पर कुछ नहीं सुनते, संकेतों में बात कहने पर भी कहीं दूर शून्य में ताकते नजर आते हैं, यहाँ तक कि झिंझोड़े जाने पर भी उनमें कोई हरकत पैदा नहीं होती।  इस अवस्था में इन्हें वन में अगर कोई रीछ देख ले तो सूंघ कर वापस चला जाए! ऐसा मालूम होता है मानो किसी अहिल्या को शापित कर शिला बना दिया गया हो। सरकार को चाहिए कि वह ऑनलाइन भलाईवीरों पर स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोसीजर के जरिए अति शीघ्र नकेल कसे ताकि इन अहिल्याओं को शापमुक्त किया जा सके!

Friday, May 22, 2020

कोरोना युगीन वर की तलाश



पिता- पुत्री, तुम्हारे विवाह के लिए एक ऑनलाइन विज्ञापन तैयार किया है। पढ़ कर देखो, ठीक तो है!

पुत्री- (पढ़ती है।)

गौर वर्ण, 23 वर्षीय, सुशिक्षित, सुरुचिपूर्ण, सर्वगुणसंपन्न कन्या के पाणिग्रहण हेतु इच्छुक प्रत्याशियों द्वारा पूर्ण बायो डाटा सहित आवेदन आमंत्रित किए जाते हैं। प्रकाशन तिथि के एक माह के अंदर प्राप्त ऑनलाइन आवेदनों पर ही विचार किया जा सकेगा।

कृपया नोट करें कि निम्न वर्गों के प्रत्याशी आवेदन के पात्र नहीं हैं।
1.       आई. आई. टी. / आई. आई. एम. डिग्रिधारी अथवा ग्रीन कार्ड होल्डर
2.       एक पैर जमीन तो दूसरा विमान पर रखने वाले, आधी जिंदगी होटलों में बसर करने वाले कंपनी        एग्ज़ीक्यूटिव
3.       नेताओं और जनता के दो पाटों के बीच पिसते, फील्ड का तनाव झेलते देश और राज्यों के आला अधिकारी
4.       मर्यादा पुरुषोत्तम राम अथवा धर्मराज युधिष्टिर जैसे चरित्रवान  (कन्या को जंगलों की खाक़ छानने का कोई शौक नहीं!)
5.       कई-कई नौकर चाकर तथा दूध दही के भंडार रखने वाले माटी पुत्र
6.       किसी नट के समान अध्यापन को जनगणना, निर्वाचन, टीकाकरण, मिड-डे मील जैसे अनेक दुसाध्य कार्यों के साथ संभालने का प्रयत्न करते अध्यापकगण
7.       प्रवासी मजदूर अथवा विपन्न, साधनविहीन एवं कमज़ोर  

वे प्रत्याशी ही आवेदन के पात्र होंगे जिनकी इम्यूनिटी मजबूत हो।  भारत सरकार के आयुष मंत्रालय द्वारा जारी किया गया इम्यूनिटी का प्रमाणपत्र संलग्न नहीं किए गए आवेदन (फिर चाहे आवेदक कितना भी च्यवनप्राश खाने अथवा काढ़ा, हल्दी का दूध  इत्यादि पीने का दम क्यों न भरते हों!) तत्काल निरस्त किए जा सकेंगे। प्रत्याशियों के लिए जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, समुदाय आदि का कोई बंधन नहीं है।   

पुत्री (पढ़ने के पश्चात)- बचा ही कौन, पिताश्री... नेताओं और बाबाओं के सिवाय! ये लोग मुझे स्वीकार नहीं हैं! आप तो जाने दीजिये... मैं कुंआरी ही रह लूँगी!!

Sunday, May 3, 2020

कोरोना के करम

(वर्ष 2070 की एक कक्षा, विषय: इतिहास)
टीचर- बच्चों, आज हम कोरोना के बारे में पढ़ेंगे। चीन के वुहान नगर में वर्ष 2019 के जाते-जाते प्रकट हुआ था प्रकृति का श्रीकोरोना अवतार। नासमझ दुनिया इसे नया कोरोना वायरस कहने लगी। अपनी  शैशव अवस्था में ही अश्वमेध यज्ञ के छोड़े गए अश्व के समान यह बिना किसी लाव लश्कर के अकेला ही विश्व विजय पर निकल पड़ा था। ताकतवर राज्यों के प्रधानों के शीश अपने कदमों पर झुकाता हुआ, संसार की अतिविकसित सभ्यताओं के दंभ चूर-चूर करता हुआ जिस सरजमीं पर यह पहुंचता वही देश एकाएक ठहर जाता; जहां भी यह कुछ दिन ठहर जाता, वहीं राजा-प्रजा सभी इसके नाम की माला जपने लगते। वैसे ही जैसे फ़राज साहब फ़रमा गए हैं:
            रुके तो गर्दिशें उसका तवाफ़ करती हैं
            चले तो उसको ज़माने ठहर के देखते हैं।
रामदास- सर, समझे नहीं हम! थोड़ा विस्तार से बताएं।
टीचर- संसार के देशों की सीमाओं को धता बताता हुआ दुनिया के जिस राज्य में कोरोना का अश्व पहुंचता वहीं बाज़ारों की रौनकें उड़ जाती, स्कूल-कॉलेजों के प्रांगण सूने हो जाते, सिनेमाघरों में वीरानियां छा जाती, राजमार्गों की मांग का सिंदूर पुंछ जाता, उड़ते हुए विमान धराशायी हो जाते, रेलगाड़ियों की आती-जाती सांसें टूट जाती, मंदिरों की घण्टियों पर फ़ालिज गिर जाता और मस्जिदों में गूँजती अजान की सदाएं पथरा जातीं। लोग चूहों की तरह घरों में यूं दुबक जाते मानों शहर में एक अरसे से खूनी सांप्रदायिक दंगा चल रहा हो। कोरोना के चलते जिंदगी ठप्प हो जाती- चालू रहता सिर्फ मरीजों का अस्पताल जाना और अस्पताल से शवों का शमशान आना।
जुबेदा- किन्तु यह तो कोरोना का कहर हुआ, करम कैसे हुआ सर?
टीचर- एक तरह से कहर किन्तु दूसरी तरह से करम! इधर बाज़ारों की रौनकें उठीं तो उधर उपवनों में रोनकें लौट आयीं। आदमी संक्रमित हुआ किन्तु आबो हवा साफ हो गए। घण्टियों की आवाजें जरूर घुटी मगर परिंदों के कंठ से स्वर लहरियाँ फ़ूट पड़ी। इंसान इतने नहीं मरे जितने समुद्री कछुए पैदा हो गए। सच है कि जब-जब मनुष्य के हाथों प्रकृति की हानि हुई है, तब-तब प्रकृति-धर्म की स्थापना के लिए कुदरत ने एक नया अवतार लिया है।      
निशांत- सर! कोरोना पुरुषों के लिए ज्यादा जानलेवा साबित हुआ कि महिलाओं के लिए?
टीचर- निशांत, कोरोना के कारण मरने वालों में महिलाओं की अपेक्षा पुरुष कहीं अधिक थे, विशेषकर साठ वर्ष से अधिक आयु वर्ग के!
निशांत (चौंकते हुए)- किन्तु ऐसा क्यों, सर? क्या कोरोना वायरस अपना शिकार करने में लिंग भेद करता था!
टीचर- अरे नहीं! तुम्हें तो पता होगा कि कोरोना वायरस उसे चपेट में लेता है जिसकी इम्युनिटी कमजोर हो। अब पतंजलि च्यवनप्राश खाने अथवा जड़ी बूटियों का काढ़ा पीने से इम्युनिटी नहीं बढ़ती। इम्युनिटी बढ़ानी हो तो हाथ में काढ़े का गिलास नहीं बल्कि कुछ काम धंधा होना चाहिए। गीता में भी कहा गया है कि जीवन का सार कर्म है, कर्म के बिना जीवन असंभव है। यही वजह है कि ऑफिस से रिटायर होने के बाद जिनके कर्म खत्म हो जाते हैं, वे शीघ्र ही दुनिया से भी रिटायर हो जाते हैं। यानि जिंदगी शोले फिल्म के वीरू की तरह है। इसकी सांसें तभी तक चलती हैं जब तक बसंती के पैर चलते हैं...बसंती के पैर रुके नहीं कि वीरू की जिंदगी खलास।
प्रियंका- लेकिन सर इससे यह कैसे साबित हुआ कि कोरोना से पुरुषों को अधिक खतरा होता है!
टीचर- होता है प्रियंका...देखो, लॉकडाउन अथवा कर्फ़्यू में पुरुष हो या महिला दोनों को घर की चौहद्दी के अंदर रहना होता है। घर के अंदर काम का बँटवारा तो महिलाएं यानि होम मिनिस्टर ही करती हैं न! होता यह है कि महिलाएं बड़ी चतुराई से खुद के लिए सुबह से रात तीनों वक़्त का खाना, तीनों टाइम के बर्तन, कपड़े धोने आदि के फुल टाइम काम चुन लेती हैं...जबकि पतियों के हिस्से में न्यूनतम ग्यारंटी योजना जितने काम भी नहीं आने देती। उन्हें मिलता है रोजाना सिर्फ दस पंद्रह मिनट का झाड़ू तथा सप्ताह में दो दिन आधे घंटे का पोछा, बस! नतीजा यह होता है कि दिन भर काम करती रहने वाली महिलाएं अपनी इम्यूनिटी बढ़ा कर कोरोना जैसी बीमारी को अपने ठेंगे पर रखती हैं। पति बेचारे घर के कोई काम नहीं करते, सो आसानी से कोरोना के हाथों मरा करते हैं। 
नेहा- सर, कोरोना काल में देश के सामने कौन-कौन सी विकट समस्याएँ पैदा हुई? कृपया इसका कुछ खुलासा करें तो हम पर महती कृपा होगी।  
टीचर- यह पूछिए कि कोरोना ने हम पर क्या-क्या करम किए, हमारी किस-किस जटिल समस्या को हल कर दिया। सदियों से देश की सबसे बड़ी समस्या सुरसा सी बढ़ती हुई आबादी रही है। संजय गांधी अगर दो चार साल और जिंदा रह जाते तो इस समस्या को जड़ से खत्म कर सकते थे। उन्होने जान लिया था कि समस्या के मूल में नस थी जिसे एक सूत्रीय नसबंदी कार्यक्रम चला कर आसानी से बंद करवाया जा सकता था।  सो, उन्होने अपने बंदों को दो टूक आदेश दिया था कि जहां भी नस दिखे, काट दो। और हाँ, फालतू की चीज़ें मत देखना- यही कि सामने वाला बुजुर्ग है अथवा युवा, विवाहित है या अविवाहित, पुरुष है अथवा स्त्री, काटने के लिए बस एक नस दिखनी चाहिए। ठीक वैसे ही जैसे अर्जुन को पेड़ नहीं दिखता था, चिड़िया नहीं दिखती थी- दिखती थी तो बस आँख! तुम्हें भी उसी तरह बस नस दिखनी चाहिए। उस महापुरुष का मानना था कि ऐसा करने से व्हाइट और ब्लैक दोनों तरह के जन्म बंद हो जाएंगे और आबादी की अनवरत बहती धारा स्वतः ही सूख जाएगी।  
रश्मि- आप तो सर संजय पुराण बाँचने लग गए। जरा ये तो बताइये कि व्हाइट और ब्लैक जन्म क्या हैं? और कोरोना से यह समस्या कैसे हल हो जाती है? क्या कोरोना के कारण इतनी ज्यादा मौतें होती हैं कि देश की जनसंख्या में भारी गिरावट आ जाती है?
टीचर- अरे नहीं! कोरोना के कारण मृत्यु दर बहुत ज्यादा नहीं बढ़ती बल्कि जन्म दर तेजी से घटती है!
परिणीता- हैं! मगर वो कैसे, सर?
टीचर- यह ऐसे कि कोरोना के समय स्कूल-कॉलेज, दफ्तर मॉल, सिनेमा-बाजार सब बंद होने से इश्क़ का धंधा सेंसेक्स की तरह धड़ाम से औंधे मुंह जा गिरता है। देश के युवा दिल इस दिल जले कोरोना के कारण अपने-अपने घरों में कैद हो जाते हैं। सोचो! बागों में पीपल और नीम ही नहीं होंगे तो प्रेम की पींगे कहाँ पड़ेंगी? नतीजा यह होता है कि ब्लैक में औलादों के पैदा होने पर खुद ब खुद रोक लग जाती है। सुनसान झाड़ियों और कचरे के ढेरों से नौनिहालों की बरामदगी बंद होने से अनाथालयों और बालिका गृहों में धीरे-धीरे ताले पड़ जाते हैं। इस प्रकार कोरोना के कारण समाज से चोरी-चोरी ब्लैक में पैदा होने वाले बच्चों की दर झटके से गिर जाती है!
मोनिका- मगर सर ज़्यादातर जन्म तो व्हाइट में समाज की मर्ज़ी से होते हैं, उनकी दर तो वही रहती होगी जो कोरोना से पहले थी?
टीचर- उस पर भी आते हैं, तनिक धीरज तो रखो। दरअसल कोरोना के चलते सरकार ने सख्त एड्वाइज़री जारी कर दी थी कि आपस में कम से कम दो गज़ की शारीरिक दूरी बना कर रखी जाए। तुमने भी सुना होगा- दो गज़ दूरी, बहुत जरूरी! वहीं दूसरी ओर हम अपनी उस प्राचीन विद्या को भी विस्मृत कर चुके थे जिसकी सहायता से पति अपनी पत्नी के आव्हान पर एक सुरक्षित फासला रखते हुए भी संतान प्राप्ति करा सकता था। इस सब का असर यह हुआ कि व्हाइट में भी बच्चे पैदा होने बंद हो गए। आप सोच रहे होंगे कि सभी लोग सरकारी एड्वाइज़री का अक्षरशः पालन कहाँ करते हैं। कुछ दम्पतियों ने तो फासले की एड्वाइज़री को मानने से जरूर इंकार कर दिया होगा! आपका ऐसा सोचना अपनी जगह सही है। अक्सर लोग सरकारी एड्वाइज़री को ऐसे ही लेते हैं जैसे फिल्मों में धूम्रपान और शराब के सेवन न करने वाली वैधानिक चेतावनी को लिया जाता है। किन्तु फासले की इस लक्ष्मण रेखा को कूदने का भी कोई खास नुकसान नहीं हुआ क्योंकि कोरोना से दिन प्रतिदिन होने वाली मौत की खबरों के बीच अधिकांश दंपत्तियों की मानसिक दशा मंटो की ठंडा गोश्त नामक कहानी के ईशर सिंह जैसी हो गयी थी। इस तरह सदियों से चली आ रही जनसंख्या की समस्या कोरोना की रहमत से चुटकियों में हल हो गयी।
शैलेंद्र- सर कोरोना महामारी से नागरिकों के नैतिक और आध्यात्मिक चरित्र पर क्या प्रभाव पड़ा?
टीचर- इस मामले में कोरोना युग की तुलना सतयुग से की जा सकती है। इस काल में लोग सिर्फ कोरोना से मरते थे। नगर में न कोई हत्या होती थी न ही चोरी, डकैती और राहजनी। यहाँ तक कि जेल में बंद क़ैदियों को भी छोड़ दिया जाता था। लोग बेफिक्र हो कर रात के समय घर के मुख्य द्वार पर ताला तक नहीं लगाया करते थे। खरीद कर लाया सौदा सुल्फ़ा कई दिनों आँगन में ही पड़ा रहता था। किसी की जेब से असावधानीवश रुपये सड़क पर गिर पडें तो वे वहीं पड़े रहते थे। आसपास कोई देखने वाला न भी हो तब भी उन्हें कोई उठाता तक नहीं था। सुरक्षा उपकरणों से लैस नगर निगम का विशेष प्रशिक्षित दस्ता उन्हें उठा कर राजकोष में जमा करवा देता था। नैतिक क्षेत्र के अतिरिक्त आध्यात्मिक क्षेत्र में भी कोरोना राज में काफी उन्नति नजर आई। कई घटनाएँ ऐसी देखी गई जब कोरोना से मृत्यु के बाद अन्त्येष्टि हेतु पुत्रों ने पिता का शव लेने से इंकार कर दिया, परिजनों और पड़ोसियों ने जनाजे को कांधा देने से मना कर दिया। मजबूरी में पुलिस, प्रशासन को ही शव का अंतिम संस्कार करना पड़ा।  अर्थात भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया उपदेश- कि संसार में न कोई किसी का पिता है और न ही पुत्र, न कोई सगा है न संबंधी, रिश्ते नाते सब मिथ्या हैं, लोगों ने आत्मसात कर लिया था।              
संजय- एक अंतिम प्रश्न सर! क्या कोरोना अवतार धरती पहली बार अवतरित हुआ था अथवा इससे पूर्व भी कोरोना की मौजूदगी के प्रमाण मिलते हैं?
टीचर- कहा तो जा रहा है कि कोरोना को दुनिया में 2019 के अंत में पहली दफ़ा देखा गया। लेकिन क्योंकि इसे नया कोरोना वायरस का नाम दिया गया, इससे यह संकेत मिलता है कि पूर्व में भी कोई पुराना कोरोना वायरस धरती पर जरूर विचरा होगा...ठीक वैसे ही जैसे कि हेनरी अष्टम से पहले एक हेनरी सप्तम होता है, नई शिक्षा नीति से पहले पुरानी शिक्षा नीति होती है। वैसे भी धरती की हानि कोई पहली बार तो हुई नहीं। इसे देखते हुए कुछ विचारकों का मत है कि मिर्ज़ा ग़ालिब के जमाने में भी अगर कोरोना नहीं तो कोरोना से मिलती जुलती कोई महामारी जरूर आई थी। ऐसा नहीं हुआ होता तो ग़ालिब साहब को यह  शे'र क्यूँ कहना पड़ता!
            मुद्दत हुई है यार को मेहमां किए हुए
            जोश-ए-कदह से बज़्म चरागाँ किए हुए।                
जिसका भावार्थ है कि लॉकडाउन के कारण देसी-विदेशी शराब के सब ठेके बंद हैं और लोग अपने–अपने घरों में क़ैद हैं। यही वजह है कि एक अरसा हो गया घर में न कोई यार दोस्त ही आया और न ही शराब की प्यालियों से कोई महफ़िल ही रौशन हुई। इति।  

Thursday, April 23, 2020

संदिग्ध को क्वारंटीन कराने की कसरत



अभी तक सब मज़े में थे। आसपास की बस्तियों में रोज केस निकल रहे थे किन्तु हम ग्रीन ज़ोन में थे। जैसे ही हमारे इलाके में पहले संदिग्ध की मौजूदगी के लक्षण दिखाई दिये, रहवासियों में हड़कंप मच गया। हड़कंप का कारण भी था। क्वारंटीन किए जाने के डर से संदिग्ध भरसक अपनी पहचान छुपाने की कोशिश करते थे और पकड़ में तभी आ पाते थे जब उभर गए लक्षण मजबूरन उनका पर्दाफ़ाश कर डालते थे। किन्तु तब तक वे न जाने कितने परिजनों को संक्रमित कर चुके होते।

खैर, क्षेत्र में संदिग्ध होने के बारे में संबधित अफसरों को अविलंब सूचना दी गयी। सूचना मिलते ही अधिकारियों द्वारा सबसे पहले प्रभावित क्षेत्र की अच्छे तरीके से नाकेबंदी करा दी गई ताकि कोई भी बिना इजाजत न अंदर आ सके और न ही बाहर जा सके। साथ ही एक स्वास्थ्य दस्ते का ताबड़तोड़ गठन कर उसे संदिग्ध को शिघ्रातिशीघ्र क्वारंटीन कराने का जिम्मा सौंपा गया। तीन सदस्यीय स्वास्थ्य टीम को सभी जरूरी उपकरण तथा सुरक्षा किट मुहैया करा दी गई तथा मुहिम पर तत्काल कूच करने के आदेश दे दिये गए।

स्वास्थ्य टीम जानती थी कि संदिग्ध कोई मर्यादा पुरुषोत्तम तो है नहीं, जो उनके एक बार कहने भर पर अपना घर-बार, नाते-रिश्ते छोड़ कर ख़ुशी-ख़ुशी चौदह दिन के क्वारंटीन पर चल देगा। उन्हें पूरी आशंका थी कि दस्ते के आने की खबर लगते ही वह जरूर किसी सुरक्षित जगह पर जा छुपेगा। और अगर ख़ुदा ना ख़्वास्ता अपने ठिकाने पर आसानी से मिल भी गया तो क्वारंटीन पर जाने में हर हाल में जबर्दस्त हीला हवाली करेगा। हुआ भी वही, जिसकी आशंका थी! यही देखते हुए इलाके में पहुँचने के साथ ही टीम ने संदिग्ध की तलाश शुरू कर दी। स्वास्थ्य दस्ते  ने सर्वप्रथम सील किए गए इलाके का गहन मुआयना किया। वे स्थान खोजे गए जहां संदिग्ध छिपा हुआ हो सकता था। साथ ही उन संभावित मार्गों की को भी चिन्हित कर लिया गया जिन्हें पकड़ कर संदिग्ध दस्ते की नजर से बच कर भागने की कोशिश कर सकता था। इसके पश्चात योजना के अनुसार मोर्चाबंदी की गई।

दस्ते के तीनों सदस्यों को अलग-अलग दिशाओं में तैनात किया गया। टीम का एक मेम्बर संदिग्ध को ढूंढ कर जैसे ही कब्जे में लेने की कोशिश करता वह घेरा तोड़ कर दूसरी दिशा में दौड़ लगा देता और फिर तेजी से किसी नामालूम जगह पर जाकर गायब हो जाता। तलाश की यह कवायद एक बार फिर किसी नए सिरे से शुरू की जाती। किसी ढब ढूंढ कर उधर से हकाले जाने पर वह तीसरी जानिब भाग उठता और किसी मायावी राक्षस की तरह अचानक नजरों से ओझल हो जाता। घंटों यही उठापटक चलती रही-  वह इस पल प्रकट होता तो उस पल कहीं अंतर्ध्यान हो जाता। कभी लगता कि जैसे हाथ आ ही गया लेकिन अगले ही पल हाथ मलते हुए रह जाना पड़ता।  

आखिर वह घड़ी आ ही गयी जब टीम की एक अरसा की जद्दो-जहद और घेराबंदी काम आई। भारी मुश्किलों के बाद रसोईघर  में छुपे हुए उस मोटे चूहे को मुख्य द्वार के रास्ते बाहर कर नजदीकी जंगल में क्वारंटीन करा दिया गया।

Wednesday, March 25, 2020

एड्वाइज़री का वायरस



इधर देश में कोरोना वाइरस चढ़ा आ रहा है, तो उधर दसों दिशाओं से तरह-तरह की एड्वाइज़री बरस रहीं हैं।   लिहाज़ा देश के नागरिकों की जान हलकान है।  टीवी चेनल, फेसबुक, व्हाट्सएप, अखबार, टेलीफोन और न जाने किन-किन माध्यमों से आठों पहर एक के बाद एक एड्वाइज़री धकेली जा रही हैं। एड्वाइज़री का यह वायरस कहाँ-कहाँ से होता हुआ जब हम तक पहुँचता है तब तक यह एक बिलकुल ही नया रूप धर लेता है, ठीक नए कोरोना वायरस की तरह! जनता की सेहत की चिंता में एक घुली लेटेस्ट एड्वाइज़री में कहा गया है कि काम करने वाले लोग दफ़्तर न जाएँ तथा जहां तक हो सके वर्क फ़्रोम होम ही करें। इस एड्वाइज़री की मार्फ़त पता चलता है कि हमारी सरकार देश की जनता को अगर बेवकूफ़ नहीं तो बहुत भोला भाला जरूर समझती है। इस एड्वाइज़री के ज़रिए वह देश के लोगों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश करती दीख पड़ती है कि दफ्तरों में लोग वाक़ई काम करते हैं। जबकि हर कोई जानता है कि दफ्तरों में अक्सर लोग हाजिरी लगा कर घर का बिजली का बिल भरने, बच्चों की स्कूल की फीस जमा कराने या पत्नी को शॉपिंग कराने निकल जाते हैं! किसी मजबूरी के चलते यदि उन्हें कभी कार्यालय में रहना भी पड़े तो अपनी सीट पर हरगिज़ नहीं पाये जाते। वरन इन्हें अत्यधिक आवश्यक और महत्वपूर्ण बैठक के बहाने किसी वरिष्ठ अफसर की मेज़ के गिर्द इकट्ठा होकर चाय की प्याली पर हंसी ठठ्ठा करते हुए देखा जा सकता है। ऑफिस समय में भी ‘वर्क फॉर होम’ करने वाली प्रजाति से ‘वर्क फ़्रोम होम’ की उम्मीद रखना ऐसा ही है जैसा:

       हमको उनसे है वफ़ा की उम्मीद
       जो नहीं जानते वफ़ा क्या है।

किसी से हाथ मिला कर मिलने के बदले दूर से नमस्ते करने की एड्वाइज़री जैसे ही जारी हुई तभी से तमाम  टेलीविज़न चेनल, फेसबुक, वाट्स एप्प और अखबार यह बताने पर पिले पड़े हैं कि किस तरह भारतीय संस्कृति के सहारे कोरोना से चुटकियों में जंग जीती जा सकती है। हाथ मिलाने के विदेशी रिवाज की तरह कोरोना जैसी महामारी भी बाहरी सभ्यताओं (या कि असभ्यताओं) से ही आई है। कहा जा रहा है कि कोरोना जैसी बीमारी से लड़ना है तो हमें हाथ मिलाने के बजाय नमस्ते अपना कर भारतीयता की ओर लौटना चाहिए। यदि भूल से किसी को छू बैठें तो तत्काल हाथों को साबुन के साथ अच्छी तरह से धो लेना चाहिए। इस तरह कोरोना के वायरस से पीछा छुड़ाया जा सकता है। हाथों को धोने को लेकर भी अलग-अलग एड्वाइज़री प्रसारित की जा रही हैं- मसलन कि हाथों को यूं धोना चाहिए वूं नहीं, अलां चीज़ से धोना चाहिए फलां चीज़ से नहीं, इतनी देर तक धोना चाहिए उतनी देर तक नहीं, इतनी बार धोना चाहिए उतनी बार नहीं। हाथ धोना न हुआ मंगल यान की ट्राजेक्टरी हो गया कि अपने परिपथ से बाल भर भी विचलित नहीं होना चाहिए। मेरा मानना है कि ऐसी  एड्वाइज़री  जारी करने वाले आधे-अधूरे विद्वान भारतीय संस्कृति को शायद ही पूरी तरह से समझ पाये हैं। उन्हें मालूम नहीं कि दूसरी सभ्यताएँ जिस वक़्त दुधमुंही अवस्था में थी तभी से भारतीय संस्कृति में किसी भी ऐरे गैरे से संपर्क हो जाने पर विधि विधान के अनुसार सम्पूर्ण स्नान करने का नियम रहा है। आज जो लोग एक दूसरे से एक मीटर फासले पर रहने का ज्ञान बाँट रहे हैं वे नहीं जानते कि भारत की महान संस्कृति में सनातन काल से ही इन लोगो की परछाई तक का अपने ऊपर पड़ जाना संक्रमण ही नहीं अपितु अशुभ भी माना जाता रहा है। छः फुट की खाट के सिरहाने यदि कोई संभ्रांत बैठा हो तो संक्रमित अर्थात अपवित्र व्यक्ति को पैताने पर भी बैठाने का प्रावधान नहीं था वरन उसे ठेठ भू पर बिठाया जाता था। यानि बहुत पहले से ही हम आदमी को दो मीटर दूरी पर ही नहीं बल्कि अपने से दो फुट नीचे रखने के हिमायती रहे हैं। इतने जागरूक देशवासियों को भला कोरोना से क्या डरना!! 

एड्वाइज़री की मार हम पर ही नहीं, सरकार पर भी है। सरकार जो है वह दो पाटों के बीच में बुरी तरह पिस रही है और एकदम लाचार नजर आ रही है। एक तरफ तो वे लोग हैं जो जारी की गई किसी न किसी एड्वाइज़री को वापस करवाने पर अड़े हुए हैं, तो वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अभी तक जारी नहीं की गई एड्वाइज़री  को तत्काल जारी करवाने पर तुले हुए हैं। खबर आ रही है कि अखिल भारतीय चौर्य संघ के एक डेलिगेशन ने प्रधानमंत्री को ज्ञापन सौंपा है। ज्ञापन में मांग की गई कि सरकार बुजुर्गों के चौबीस घंटे सातों दिन घर में रहने की एड्वाइज़री को तत्काल वापस ले वरना उनके परिवारों के फाके हो जाएंगे। यदि शीघ्र ऐसा नहीं हुआ तो वे कोरोना से किसी तरह बच भी गए तो भूख से जरूर मारे जाएंगे। दूसरी ओर यह भी खबर है कि देवों/ देवियों के एक उच्च शक्ति शिष्टमंडल ने नर श्रेष्ठ श्रीमान प्रधानमंत्री जी से मुलाक़ात की है। शिष्टमंडल ने शिकायत की है कि धर्म के मामलों में टांग नहीं अड़ाने की नीति (चुनावी मौसम के अलावा) के चलते सरकार मंदिर मस्जिद के कपाट बंद कराने की एड्वाइज़री जारी करने से कतरा रही है। दुनिया जानती है कि भक्तों की सहूलियत को देखते हुए सरकार हर साल सर्दियों का मौसम आते ही बर्फानी बाबा के कपाट बंद करवाती रही है। कोरोना के बढ़ते मामलों को देखते हुए मनुष्यों की तरह सभी देवी देवताओं में भी हड़कंप मचा हुआ है किन्तु बेपरवाह सरकार उनके स्वास्थ्य की अनदेखी कर अपनी आँखें मूँद कर बैठी है। ऐसे में उन्हें भय है कि कल कोई कोरोना पॉज़िटिव भक्त अगर किसी एक देवी/ देव के चरण छू कर निकल गया तो तैंतीस करोड़ देवों के पूरे कुनबे में वायरस को फैलने से रोकना नामुमकिन हो जाएगा। इससे पहले कि पानी सर के ऊपर निकल जाए सरकार को अविलंब एड्वाइज़री जारी कर मंदिर मस्जिद गिरजे आदि सभी धर्मस्थलों के कपाट तत्काल अनिश्चित काल तक के लिए बंद करा देने चाहिए।       

जिस रफ़्तार से भारत में कोरोना संक्रमितों की संख्या बढ़ रही है, उस से अधिक तेजी से एड्वाइज़री जारी की जा रही हैं। अभी 22 मार्च को सुबह 7 से रात 9 बजे तक जनता कर्फ़्यू लागू करने की एड्वाइज़री को ही लें। यह एड्वाइज़री अकेले नहीं आई बल्कि साथ में एक और एड्वाइज़री ले कर आई। यही की कोरोना वीरों के सम्मान में शाम 5 बजे सब अपनी-अपनी बालकनी में निकल कर 5 मिनट तक श्रद्धानुसार ढ़ोल-मंजीरे, घंटे-घड़ियाल अथवा थाली-ताली बजाएँगे। जो मूढ़ मगज़ इस एड्वाइज़री को इटली से आयातित बता रहे हैं, उन्हें मैं साफ कर दूँ कि यह एक ठेठ देसी और सनातन परंपरा है। बच्चे-बच्चे को पता है कि आदि काल से ही हम मास्टर लोग विद्यार्थियों का हौसला बढ़ाने के लिए पाठशालाओं और मदरसों की बाल सभा (एसेम्बली) में ताली पिटवाते रहे हैं! वैसे थाली, ताली पिटवाने की यह रस्म कर्फ़्यू की समाप्त के उपरांत रात 9 बजे भी निबाही जा सकती थी, मगर 9 बजे शायद इसलिए नहीं रखी गई ताकि उत्साहपूर्वक थाली ताली और घंटे घड़ियाल पीटते हुए लोगों की फोटूएं जबर्दस्त आ सकें। खैर! शाम 5 बजे मंत्री-संत्री, दरबारी और प्रजा सभी को सुध बुध खो कर घंटे घड़ियाल, थाली-ताली बजाते देख कर मुझे डर लग रहा था कि अगर सीमा पर हमारी फौज भी ऐसे ही भाव विभोर हो कर ताली-थाली पीटने में लग गयी होगी तो पाकिस्तान ने अपने सारे कोरोना संक्रमित नागरिकों को चोरी छुपे बार्डर पार करा कर भारतीय सीमा में जरूर धकेल दिया होगा!!


Monday, November 26, 2018

बॉक्सिंग बाउट



फ़ाइनल्स की पहली बाउट अपनी पिंकी और चीन की पेंग के बीच थी। पिंकी, पेंग को दौड़ा-दौड़ा कर पीट रही थी। पेंग रिंग के चारों तरफ बचती फिर रही थी। रिंग के किनारे-किनारे अगर मोटे-मोटे रस्से न बांधे गए होते तो वह रिंग छोड़ कर कब की भाग गयी होती! वैसे चकमा देकर भाग निकलने में रस्सों के अलावा भी एक और बहुत बड़ी दिक्कत थी। रिंग के अंदर एक हट्टी कट्टी  बाउंसर जैसी महिला दोनों मुक्केबाजों की हरकतों पर नजर रखने के लिए ही छोड़ी गयी थी। यूं कहने को तो उसे रेफ़री कहा जा रहा था, मगर उसका प्रमुख काम किसी बॉक्सर को जिताना या हराना नहीं था। इस काम के लिए अलग से चार पाँच जजों की टोली रिंग के बाहर बिठाई गयी था। जहां तक हमें समझ आया रेफ़री को रिंग में इस लिए रखा गया था ताकि कोई पिटता हुआ मुक्केबाज़ अगर रस्सा टाप कर भागना चाहे तो उसे वापस घसीट कर रिंग में लाया जा सके। खैर, मुक़ाबले में मार खाते-खाते एक समय पेंग को लगा कि वह अब और ज्यादा मुक्के नहीं झेल पाएगी। अपने सामने कोई और रास्ता न देख, वह झट से पिंकी के गले इस अदा से पड़ गयी जैसे राहुल गांधी नरेंद्र मोदी के गले पड़ गए थे। लंबी जद्दों-जहद के बाद रेफ़री ने बुरी तरह से गुत्थमगुत्था हो चुकी दोनों खिलाड़ियों को जैसे-तैसे अलग किया। यह सब देख कर ही हमे रेफ़री का दूसरा अहम काम समझ आया जो कि एक-दूसरे में अंदर तक गुंथ गयी बॉक्सरों को खींच कर अलग-अलग कर फिर से मुक्के खाने के लिए तैयार करना था।

पेंग के अलग होते ही पिंकी ने फिर से मुक्कों की बरसात शुरू कर दी। उसे देख कर ऐसा लग रहा था  कि आज वह पेंग का भरता ही बना कर छोड़ेगी। वो तो शुक्र मनाओ कि बाउट का समय समाप्त हो गया। रेफ़री ने पिंकी को अपनी बांयी तरफ तो पेंग को दांयी तरफ खड़ा कर दोनों की कलाइयाँ मजबूती से पकड़ ली ताकि नतीजा सुन कर दोनों एक दूसरे के सिर न फोड़ बैठें। पिंकी को नतीजे की इंतजार करना मुश्किल लग रहा था। वह कभी गज-गज भर उछल कर खुद को जीता हुआ समझते हुए हवा में मुट्ठी लहराने लगती, तो कभी उत्तेजित होकर  खुशी के मारे जार-जार ही रोने लगती। लेकिन रेफ़री ने जब पेंग का हाथ ऊपर उठा कर उसे जीता हुआ घोषित किया तब हमें पता चला कि खुद खिलाड़ी अथवा ओडियेंस पोल  पर मुक्केबाज़ी का फैसला क्यों नहीं छोड़ा जा सकता! हम और आप जिस खिलाड़ी को जीता हुए मान रहे हों, वह हार जाए और जो हारता हुआ दिख रहा हो वह मुक्केबाज़ जीत जाए तभी समझ आता है कि आखिर जज करना क्या होता है!!

अगला मुक़ाबला शुरू हुआ। दस्ताने टकराते ही दोनों खिलाड़ी आक्रमण की मुद्रा में आ गयीं। किंग कोबरा की तरह घड़ी-घड़ी दोनों अपने-अपने धड़ कभी बांये लहराती, तो कभी दांये। एक दूसरे से बराबर दो-दो हाथ की दूरी रखते हुए दोनों अपने-अपने विपक्षी की तरफ एक अरसे तक फूँ-फाँ करती रही। इस तरह पहला दौर यूं ही डराने धमकाने में गुजर गया। दूसरा दौर शुरू हुआ। अबकी बार एक खिलाड़ी अपने असली और नकली दोनों दाँतो की जोडियाँ ज़ोर से किटकिटाते हुए दूसरी की तरफ यूं झपटी मानों सर्जिकल स्ट्राइक करके ही लौटेगी। किन्तु दूसरी ने चपल नेवले की तरह फुर्ती से बगल हो कर उसके मंसूबों पर पानी फेर दिया। अब दूसरी ने पहली के थोबड़े पर कस कर मुक्का जमाया मगर बदकिस्मती से जिसे वह थोबड़ा समझ रही थी वह सामने वाली का दस्ताना निकला। तीसरे और आखिरी दौर में बड़ा ही जंगी मुक़ाबला देखने को मिला। अब वे इस स्टाइल में लड़ने लगीं मानों दो झगड़ालू पड़ोसनें एक दूसरे का झोंटा खीच-खींच कर उसकी दुर्गति बनाने पर तुली हों। कभी एक बॉक्सर विपक्षी को रिंग के रस्सों पर पटक देती तो कभी दूसरी, सामने वाली को जमीन पर गिरा कर उसकी छाती पर चढ़ बैठती। 

कहना मुश्किल था कि कौन किस पर भारी है। दोनों ही साढ़े उन्नीसी नजर आ रही थी , बिलकुल न तुम जीते, न हम हारे की तर्ज़ पर। अब सबकी निगाहें उधर लगी थी। देखने की बात यह थी कि वे किस पूनम के चाँद को सूरज सिद्ध करते हैं यानि किसके गले में सोना डालते हैं, किसके हिस्से में चांदी लिखते हैं! आप समझ ही गए होंगे कि हमारा इशारा जिन गुणीजन की तरफ है, उन्हें ही जज कहा जाता है!

Sunday, October 7, 2018

गए थे नमाज़ बख्शवाने....रोज़े गले पड़ गए !!



बड़ा शोर सुनते थे की इक्कीसवीं सदी में विज्ञान ने ये तरक्की कर ली, वो तरक्की कर ली। हम नहीं मानते! हमें तो लगता है कि जिस जगह हम पचास-साठ साल पहले थे, आज  भी वहीं खड़े हैं।  नज़ला जुकाम हो तो पहले भी हकीम वैद्य जी जड़ी-बूटियों का काढ़ा पीने की सलाह दिया करते थे। आज के पढे लिखे डाक्टर भी सर्दी खांसी में गोलियां लिखने के बाद भी नमक के पानी के गरारे दिन में पाँच वक़्त करने की ताकीद करते हैं।  भला कोई इनसे पूछे, भले मानुषों! अगर गरारे ही लिखने थे तो फिर ये तीन-चार गोलियां क्यों लिख रहे हो। और अगर गोलियां इतनी ही जरूरी थीं तो फिर गरारों के बदले एक और गोली क्यों नहीं लिख देते! सालों-साल डाक्टरी में एड़ियाँ घिसने पर भी क्या आपको किसी ऐसी गोली के बारे में नहीं पढ़ाया गया जो सर्दी खांसी में पहले ही से बेहाल मरीज को गरारों की जहमत  से बचा सके! अब बदकिस्मत मरीज के पास जान बचाने की बस एक ही सूरत बचती है- यही कि कोई ऐसी जुगत भिड़ाई जाए कि किसी को कानों-कान खबर लगे बगैर गरारे गोल कर दिये जाएँ! मगर आप भूल रहे हैं कि हर घर में डाक्टर की बैठाई गई एक खुफिया एजेंट होती है जिसे शास्त्रों में बीवी कहा गया है। वह आपको अपने  नेक इरादों में सफल नहीं होने देगी। रह-रह कर आपको गरियाएगी, “सुबह- सुबह खामखां का बखेड़ा कर रहे हैं, चुपचाप गरारे कर क्यूँ नहीं लेते। आखिर आप ही के भले के लिए तो हैं।“ अब उनसे कौन उलझे कि हे भागवान! अगर गरारे ही भले के लिए हैं तो फिर पर्ची में लिखी तीन चार गोलियां काहे के लिए हैं!

आप क्या जानें गरारा क्या चीज़ है! यह सिर्फ वही बता सकता है जिसे कभी पाँच वक्ती नमाज़ की तरह गरारे करने पड़े हों। इस तुच्छ प्राणी के अनुसार गरारा एक बेहूदा किस्म की वह क्रिया है जिसमें गरारा करने वाला अर्थात गरारक, बेहद खारे पानी का एक-एक घूंट भरता है किन्तु उसे न तो गटकता है और न ही कुल्ले की तरह बाहर ही फेंकता है। तो बजाहिर यह कड़वा घूंट उसे एक अरसा गले के अंदर संभाल कर रखना होता है। न केवल संभाल कर रखना होता है बल्कि अंदर की हवा बाहर निकालते हुए गले के अंदर ही अंदर उसे गेंद की तरह टप्पे भी खिलाना होता हैं। इस सब का नतीजा यह होता है कि गरारक एक  सियार की तरह आसमान की जानिब मुंह उठा कर हुआं- हुआं, हुआं- हुआं की तर्ज़ पर गर्र-गर्र,  गर्र-गर्र की अजीब सी आवाजें निकालता हुआ दीख पड़ता है। फर्क बस इतना भर है कि सियार को यह क्रिया समूह के साथ अंधेरे में करने की सुविधा है, जब उसे दूसरा कोई जानवर नहीं देख रहा होता। जबकि गरारक को यह काम दिन दहाड़े अकेली-जान सम्पन्न करना होता है। इस कारण उसे अपने आसपास मौजूद लोगों की नजरों में सरकस जैसे करतब दिखाने वाला जोकर  समझे जाने का पूरा-पूरा खतरा रहता है।

गये महीने की ही बात है। नित्य-कर्म से फारिग हुए ही थे कि पत्नी ने गरारों का पानी सामने रख दिया। हमें वो मनहूस घड़ी याद आ गई जब हम उस गरारा डाक्टर के पास गए थे। गले के अंदर बहुत गहरे झाँकने के बाद उन्होंने अपना फैसला सुना दिया था।  गोलियां लिख रहा हूँ पर ये उतना आराम नहीं करेंगी जितना गरारे....नमक के गुनगुने पानी से दिन में पाँच मर्तबा गरारे करो।“ “पाँच! हम सकते में आ गए। डरते झिझकते  बोले- सर,  सीनियर सिटिज़न हूँ, सेवा निवृत्त हो चुका हूँ,....पाँच बार के गरारे नहीं झेल पाऊँगा। थोड़ी रियायत कर दीजिये!” वे डपट कर बोले, “रिटायर हो गए तो  कहीं काम पर भी नहीं जाना...फिर गरारों में क्या दिक्कत है!”  “तो आप हमें इलाज़ दे रहे हैं कि काम दे रहे हैं!” इतना कह कर हम भुनभुनाते हुए क्लीनिक से बाहर आ गए।

डाक्टर लोग गरारा तो लिख देते हैं, मगर यह नहीं लिखते कितना गरम पानी गुनगुना माना जाए...या कितने लीटर पानी में कितने ग्राम नमक मिलाया जाए कि गरारे का पानी बन जाए। उल्टी दस्त के मर्ज में दवाइयों की दुकान पर बना-बनाया ओ.आर.एस.  नाम का घोल मिल जाता है। लेकिन नजला नाज़िल होने वालों के लिए तैयार किया हुआ गरारों का पानी कहीं नहीं मिलता। सो गरारक को तरह-तरह की तकलीफ़ों से दो चार होना पड़ता है। बाज दफा पानी में गर नमक कुछ ज्यादा ही डल गया तो गरारक पर जो गुजरती है उसे आसानी से बयान नहीं किया जा सकता। गरारा-रूपी हलाहल को हलक में उछालते-उछालते अक्सर वह भगवान शिव की तरह नील-कंठ हो कर रह जाता है।

दुनिया का सबसे झकमार और उबाऊ काम अगर कोई है, तो वो गरारे करना है। बच्चों को रोज भारी भरकम गृह कार्य के तले दाबने वाले जालिम मास्टरों की तरह ही डाक्टरों की  प्रजाति भी मरीजों को गरारा जैसे फिजूल के जानलेवा कामों  में भिड़ा कर मजा लेती है। लेकिन हमारी बात अलग है। हम पर जुल्म करने वालों को शायद मालूम नहीं कि वे अगर दवाई डाक्टर हैं, तो हम  पढ़ाई डाक्टर (पीएच. डी.) है। वे इलाजपति हैं, तो हम किताबपति हैं। सो  उन्हें चकमा देना हमारे लिए कोई बड़ी बात नहीं। जैसा कि हम पहले कह चुके हैं कि उनसे कहीं बड़ी मुसीबत पत्नी है, जो घर में हमारी हरकतों पर लगातार नजर रखती है। वह कब औचक रसोई से वाश बेसिन की तरफ देखने आ जाये कि हम गरारे कर भी रहे हैं या नहीं, कोई नहीं बता सकता! मगर हम भी छकाने में कुछ कम नहीं। हम मुंह से गरारों जैसी इतनी ऊंची आवाज़ निकालते हैं कि रसोई में काम कर रही पत्नी आसानी से सुन सके। साथ ही घूंट के माप के बराबर पानी की छोटी-छोटी आहुतियां लगातार वाश बेसिन को देते चलते हैं ताकि पत्नी के अचानक इधर आन पड़ने पर उसे बिलकुल शक न हो। इस तरह अपनी होशियारी के दम पर हम डाक्टर और अपनी धर्म पत्नी दोनों को सदा चकमा देने में तो कामयाब रहे किन्तु सर्दी खांसी को चकमा नहीं दे सके। सो अगली बार फिर डाक्टर के पास जाना पड़ा और फिर गरारे गले पड़ गए!!